शनिवार, 19 सितंबर 2015

ऐ ! प्रकृति थोड़ी सी रिश्वत ले



घमंडी धनवान उवाच
 
ऐ ! सूरज थोड़ी सी रिश्वत ले ,
अपनी ये तपिश कम कर ले ।
तेरा ताप तो बढ़ा ही जा रहा ,
धरती पर इंसान जला जा रहा ।
एसी , कूलर और ठण्डा पानी ,
इतनी गर्मी में सब हुए बेमानी ।
तू हमें इतना क्यों सता रहा  ,
क्या कुछ माल-पानी चाह रहा ।
अरे ! हम बहुत बड़े अमीर हैं ,
कईयों के खरीदे जमीर हैं ।
हमारा समय खराब न कराओ ,
जल्दी से अपनी कीमत बताओ ।
हम देंगे पैसा आप ऐश कीजिए ,
ब्रांडेड खाइए और मॉल में घूमिए ।
चाहें तो प्लेन का टिकट लीजिए ,
पर तपिश की मात्रा कम कीजिए ।

ऐ ! चाँद थोड़ी सी रिश्वत ले ,
अपनी शीतलता दुगुनी कर ले ।
हमने सूरज को भी समझाया था ,
पर उसने ऑफर ठुकराया था ।
सूरज तो बेरहम हुआ जा रहा ,
तेरा ही सहारा नजर आ रहा ।
तुझे दे सकते हैं रुतबा आलीशान ,
बस हमारी बात को ले तू मान ।
अपनी शीतलता को दुगुना करना ,
छः महीने बिल्कुल भी न घटना ।
रात में बिल्कुल भी न पड़ना मन्द ,
छः माह को अमावस करना बन्द ।
हो सके तो दिन में भी निकलना ,
दोपहरी की गर्मी को कम करना ।
बदले में देंगे पैेकेज शानदार ,
बंगला , केबिन और मोटर कार ।

ऐ ! मेघ थोड़ी सी रिश्वत ले ,
मेरे अनुसार तू वृष्टि कर ले ।
आजकल तो मनमौजी हुआ जा रहा ,
जब भी चाहता तब बरसा जा रहा ।
तू जब मन चाहता हमें भिगोता है ,
क्या तेरा कोई नियम नहीं होता है ।
तू अपनी पॉलिसी कुछ चेंज कर ,
मेरे अनुसार बारिश अरेंज कर ।
एक तो ऑफिस आते - जाते न बरसना ,
मेरे सोते समय बिल्कुल भी न गरजना ।
बरसने का टाइम कर ले सेट ,
बदले में दूँगा तेरे मनचाहे रेट ।
मेरे बात मान ले बिना कोई पेंच ,
एक बार तो अपना ईमान ले बेच ।
ईमान बेचने में तेरा ही फायदा है ,
अरे 21वीं सदी का यही कायदा है ।

ऐ ! प्रकृति थोड़ी सी रिश्वत ले ,
अपना ये प्रकोप कम कर ले ।
मेघ , चन्द्रमा और सूरज ,
न सुनी इन्होंने मेरी अरज ।
तेरे बच्चों में अपार घमण्ड ,
क्यों हैं तेरे बालक उद्दण्ड ।
मैंने इतने अच्छे ऑफर दिए ,
पर तेरे बच्चे ध्यान न दिए ।
अब तुझे भी दे रहा हूँ चेतावनी ,
कहो इनसे मेरी बात है माननी ।
वर्ना तेरे सारे घोटाले खुलवाऊँगा ,
तेरे कृत्यों पर तुझे जेल करवाऊँगा ।
कभी लाती बाढ़ तो कभी भूस्खलन ,
कभी लाकर भूकम्प लाखों का दमन ।
जो तूने मेरा ऑफर न किया स्वीकार ,
भगवान के आगे पेश करूँगा ये भ्रष्टाचार ।

प्रकृति उवाच

ऐ ! मानव थोड़ी सी शर्म कर ले ,
अपनी ये सोच परिवर्तित कर ले ।
तुझे है बस धन का सम्मोहन ,
तूने किया मेरा अंधाधुंध दोहन ।
पर धन से हर वस्तु नहीं खरीदी जाती ,
प्रकृति को लगी चोट यूँ ही न भर पाती ।
बनाई ऊँची इमारत खोदी गहरी खदान ,
मेरे कण - कण बेचकर बन बैठा तू महान ।
मेरी कीमत तूने लगाई है तो तू ही चुकाएगा ,
लिया है मुझसे लाभ तो हानि कौन उठाएगा ।
मेरे सूर्य , चन्द्रमा , मेघ व्यवहार में न रूखे हैं ,
न बेईमान हैं न तेरी तरह पैसे के वो भूखे हैं ।
हम आदिकाल से अब तक बिल्कुल वैसे हैं ,
हाँ पहले तेरे पास हृदय था आज जेब में पैसे हैं ।
पर पैसे से बिकने को हर चीज बाजार में न आती ,
माँ के अंग बेच - बेच नई माँ नहीं खरीदी जाती ।
ऐ ! मानव थोड़ी सी शर्म कर ले ,
अपनी ये सोच परिवर्तित कर ले ।
ऐ ! मानव थोड़ी सी शर्म कर ले ,
अपनी ये सोच परिवर्तित कर ले ।


रचनाकार
प्रांजल सक्सेना 
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शनिवार, 12 सितंबर 2015

कैसी विपदा आई रे भैय्या



कैसी विपदा आई रे भैय्या ,
नाव डुबो रहा मेरा खैवइय्या ।

उसने पास बुलाकर किया दुलार ,
मैंने उसे समझा अपना तारणहार ।

पर दरअसल उसने मुझे बहलाया ,
मुझे भँवर में उसने धकियाया ।

काश मुझे वो तैरना सिखलाता ,
जीतने के सारे पैंतरे बतलाता ।

पर उसने गलत रस्ता दिखलाया ,
सुंदर भ्रम के लोलीपॉप से रिझाया ।

तुझे न माफ़ करेगी मेरी आत्मा ,
अत्यंत निकट है तेरा खात्मा ।

बड़े झूठे निकले तेरे वादे ,
हम ही न समझे तेरे इरादे ।

तुझे सर्वस्व मानकर तेरे पीछे चला ,
और तूने चुपके से मुझे ही छला ।

तुझको देवता मानकर की इबादत ,
तूने धोखे की लिख दी इबारत ।

झूठ बोला , सब्जबाग दिखाए तूने ,
ख़ुशी में छाती के इंच हुए थे दूने ।

कैसे जिएँगे अब , कैसे पड़ेगी पूर ,
हृदय टूटा , स्वप्न हुए चकनाचूर ।

पर हम न टूटेंगे , न ही हारेंगे ,
तुमने बिगाड़ा है , हम सुधारेंगे ।

न अश्रु बहाएँगे , न लड़खड़ाएँगे ,
पुनः उठेंगे और डट जाएँगे ।

हमें अपना मार्ग स्वयं ही बनाना है ,
उठो साथियों अभी बहुत दूर जाना है।


रचनाकार
प्रांजल सक्सेना 
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