शनिवार, 16 अप्रैल 2016

मेरी पुत्री मेरी शिक्षक

बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं । जब से कुछ समझ आई तब से आज तक ये बात सुनता आ रहा हूँ और आगे न जाने कब तक ये बात सुनता रहूँगा । पर जब भी ये बात सुनता था समझ नहीं आता था कि आखिर ऐसा कहते क्यों हैं ? वो बच्चे जो ठीक से बोल नहीं पाते , जो ठीक से चल भी न पाते । जो घर में पड़े सामान को अस्त - व्यस्त करके रख देते हैं । जो घर के किसी भी कोने में या फिर किसी भी बड़े - बुजुर्ग की प्रतिष्ठा या उनके पद को दरकिनार करते हुए उन पर टॉयलेट या पॉटी कर देते हैं ऐसे बच्चों को ईश्वर का रूप कहने का तर्क मेरी समझ से परे था ।
पिछले वर्ष जब मेरी पुत्री ने जन्म लिया तब मैंने प्रथम बार बच्चों को अति निकटता से देखा । फिर उसे समझने का प्रयास किया । उससे खेलते हुए , उससे बात करते हुए प्रत्येक समय मस्तिष्क में मात्र एक ही बात होती थी कि क्यों बच्चे ईश्वर का रूप कहे जाते हैं और अंततः एक दिन मुझे उत्तर मिल ही गया । उस दिन मुझे पता चल गया कि ये बच्चे पल - पल हमें बहुत कुछ सिखाते हैं और प्रतिपल हमारे अन्दर श्रेष्ठ गुणों के संचार में योगदान देते हैं । इसलिए इन्हें ईश्वर का रूप कहते हैं ।
दरअसल मैंने एक दिन यूँ ही प्रेम में अपनी पुत्री के गाल पर बहुत ही हल्के से एक चपत लगाई । पर वो रोई नहीं अपितु हँसी फिर मैंने पुनः उसे खेल में चपत लगाई और वो हँसी । यद्यपि किसी अन्जान व्यक्ति को देखते ही वो रो पड़ती है फिर अन्जान व्यक्ति उसे चपत लगा दे तब तो वो बहुत रोए । परन्तु मेरे द्वारा चपत लगाने पर भी वो हँसती है । जानते हैं क्यों , क्योंकि वो मुझ पर विश्वास करती है , वो मुझसे प्रेम करती है , वो मुझे अपना मानती है । यही प्रेम , विश्वास और अपनापन उसे रोने नहीं देते ।
अब बात करते हैं ईश्वर की जिन्हें हमने परमपिता भी कहा है । वो जब हमें तनिक सा भी दुःख देते हैं तो हम विचलित हो जाते हैं । मसलन हमारी बाइक फिसल जाए , भले ही हमें चोट न लगे परन्तु उस दिन को हम मनहूस घोषित कर देते हैं । साथ ही कभी - कभी हम उस दिन प्रसाद भी चढ़ा देते हैं कि अरे ! ईश्वर नाराज हो गए । ये है हमारा अविश्वास ईश्वर पर । यदि हमने उसे सच्चे अर्थों में परमपिता माना होता तो हम यूँ विचलित न होते । दरअसल हमने स्वयं को ईश्वर से जोड़ा ही नहीं है अन्यथा हम मुस्कुराते ।
हम कई पुस्तकों में पढ़ते हैं कि प्रत्येक दुःख में भी मुस्कुराना चाहिए पर इस बात की गहराई को नहीं समझ पाते । हम नहीं समझ पाते कि ईश्वर ऐसे छोटे-मोटे दुःख देकर वास्तव में हमें प्रेम से चपत लगा रहा है । अब यदि हम उन पर विश्वास करते हैं तब हमें मुस्कुराना चाहिए । जब हम छोटे-छोटे दुःखों या समस्याओं में भी मुस्कुराएँगे तभी हम बड़े दुःख का सामना हँसते-हँसते कर पाएँगे । हम जितने बड़े दुःख में मुस्कुराते हैं उतना ही तय है कि हमारा ईश्वर पर विश्वास पुख्ता हो रहा है और जहाँ हमने मुस्कुराना छोड़ा यानि हम अब ईश्वर पर विश्वास नहीं कर रहे ।
स्पष्ट कर दूँ कि मैं ये नहीं कह रहा कि किसी की मृत्यु पर शोक न मनाया जाए । मनाया जाए , अवश्य मनाया जाए परन्तु हिम्मत न हारी जाए । यद्यपि अमुक व्यक्ति हमारे जीवन से चला गया परन्तु ईश्वर अभी भी हमारे साथ है । वो न कहीं गया है न ही कहीं जाएगा । बस हम उसमें विश्वास रखें । हमारे उस रिश्तेदार की एक निश्चित आयु थी परन्तु ईश्वर अजर है , अमर है । वो हमारे पूर्वजों से विद्यमान है और हमारे वंशजों तक को वही संभालेगा ।
एक बच्चा जन्म के समय अत्यंत कोमल और असहाय होता है । वह अपने खाने - पीने , नहाने , धोने के लिए अपने परिजनों पर ही निर्भर रहता है और हम उसे प्रेम से भोजन कराने से लेकर उसकी टॉयलेट और पॉटी साफ करने के कार्य बिना किसी चिढ़न या खीझ के सहजता से करते हैं । लेकिन वहीं हम बस से जा रहे हैं और हमारे बगल में बैठा कोई उल्टी कर दे और उसकी छींट भी हम पर पड़ जाए तो हम उसे गाली देने में भी न चूकते । दिन को कोसना तो सामान्य बात हो जाती । यदि हमारी बाइक से कोई और वाहन तनिक सा स्पर्श भी कर जाए तब हमारा पारा सांतवें आसमान पर पहुँच जाता है । हम अमुक व्यक्ति से लड़ने - झगड़ने लगते हैं । वहीं जब हमारे बच्चे हमारे ही ऊपर कूदते - फांदते हैं । कभी हमारे पेट पर चढ़ते हैं तो कभी हमारे कन्धे पर तब भी हमें बुरा नहीं लगता अपितु हम इसे खेल मानते हैं और हँसते हैं ।
कार्य वही हो रहा है परन्तु दोनों बार हमारी मनस्थिति अलग होती है । एक बार में सामने वाला हमारा शत्रु होता है और अगली बार में ऐसा व्यक्ति जिसे हम प्रेम करते हैं । हमारे छोटे बच्चे पल - प्रतिपल हमारी अपेक्षाओं को दरकिनार करके अपने मन का कार्य करते हैं और फिर भी वे हमें प्रिय होते हैं । इसीलिए हमारे ऋषि - मुनियों ने कहा है और यही हमारे ग्रन्थों में लिखा है कि जीवों पर दया करो , दूसरों की भूलों को क्षमा करो । सभी को एकसमान दृष्टि देखो , सबमें ब्रह्म है । ये मित्र और शत्रु शब्दों की परिभाषा जिसे हम जानते हैं यही सुख भरे जीवन में दुःख का समावेश कर देती है ।
हालाँकि यह भी सत्य है कि उपरोक्त बातें एक साधु के जीवन के लिए अधिक उपयोगी हैं बजाय एक गृहस्थ के । क्योंकि यदि आप सामने वाले से शत्रुता का भाव छोड़ देंगे तो भी आवश्यक नहीं कि सामने वाले ने भी यह भाव छोड़ दिया हो । वह आपको हानि पहुँचा सकता है । इसलिए शत्रु को शत्रु के पद पर ही रखकर उससे सतर्क रहा जा सकता है ।
हाँ परन्तु जैसा कि अधिकतर देखा जाता है कि हमारे मित्र ही मनमुटाव के बाद हमारे शत्रु बन जाते हैं । ऐसे में ये पोस्ट उपयोगी हो सकती है । जब आप किसी मित्र के किसी व्यवहार से असन्तुष्ट हों तब उसे अपना मान लीजिए या फिर ऐसा अबोध जिसे ज्ञान ही नहीं है कि वो आपको कष्ट पहुंचा रहा है । आप अमुक व्यक्ति को इतना अपना या अबोध मान लीजिए कि उसे क्षमा करना अत्यंत सरल हो जाए । जैसे कि आप अपने अबोध बालक को क्षमा कर देते हैं । फिर निःसन्देह आपके शत्रुओं की संख्या में कमी आएगी ।
हमारे बच्चे जन्म से ही आत्मनिर्भर नहीं होते अपितु लम्बे समय तक हम पर आश्रित रहते हैं । ये सारी व्यस्वस्था सम्भवतया इसलिए है ताकि हमारे अन्दर श्रेष्ठ गुणों का संचार हो । यदि हम अपने बच्चों के प्रति अपने व्यवहार का विश्लेषण करेंगे तो हम पाएँगे कि हम बहुत ही दयालु हैं । हममें क्षमा का अपार गुण है साथ ही सेवा का भी । हम प्रेम करना भी जानते हैं । यदि हमें सबका हृदय जीतना है तो बस हमें यही वात्सल्यपूर्ण व्यवहार अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से करना है । हम किसी और की राहों में फूल बिछाएँगे तो निश्चित ही सुगन्ध से भर जाएँगे ।
अब मैं चलता हूँ अपनी पुत्री से अभी बहुत कुछ सीखना है , आप भी चिन्तन में लीन हो जाइए ।
धन्यवाद ।
डिस्क्लेमर :- लेखक घोर नास्तिक है और जीवन भर रहेगा । परन्तु लेखक का यह भी मानना है कि आस्तिकों को ईश्वरमयी बातों से समझाना प्रायः सरल होता है । इसलिए ऊपर यथास्थान ईश्वर शब्द का प्रयोग किया गया है । लेखक का उपरोक्त बातों को समझने और मानने का तरीका ईश्वर की उपस्थिति से परे उसके स्वयं के आदर्शों में समाया हुआ है ।

लेखक
प्रांजल सक्सेना 
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