रविवार, 24 जुलाई 2016

राजदंड का अंत

  बहुत साल पुरानी बात है । इतनी साल पुरानी कि इस कहानी को पढ़ने वाले आप लोगों में से जिनके बाल सफेद हैं वे मंडप में न बैठे होंगे और जिनके बाल काले हैं वे मुक्त आत्मा बनकर उपयुक्त गर्भ की तलाश में होंगे ।
खैर कहानी पर आते हैं तो एक गाँव था आदरपुर उस गाँव में स्वतंत्र कुमार नाम के अध्यापक स्थानीय गुरुकुल में तैनात थे । गुरुकुल के भवन के नाम पर थी विशाल बरगद की छाँव । उस गाँव के सब बच्चे व ग्रामीण स्वतंत्र कुमार जी को गुरूजी कहकर ही पुकारते थे । ये वो समय था जब लोगों में अपने को आधुनिक सिद्ध करने की ललक नहीं थी और जिनमें ललक थी उनकी आधुनिकता का पैमाना चार अंग्रेजी शब्द नहीं हुआ करते थे । इसलिए उस समय के अध्यापक को किसी टेलर/मोची/बैण्ड के व्यवसाय के ज्ञाता की भाँति मास्टर की उपाधि नहीं मिली थी । पर शनै:-शनै: अंग्रेजों से आजादी की वर्षगाँठ मनती रही और लोग अंग्रेजों को भगाने के बाद भी अंग्रेजी के निकटस्थ होते रहे । परिणामतः गुरूजी को मास्टर कहा जाने लगा । मास्टर शब्द का शोधन लगातार चलता रहा । जब अध्यापकों का वेतन बढ़ा और कुर्ते पायजामे का स्थान पैंट शर्ट ने ले लिया । तब नम्रता भी कुछ-कुछ धुंधलेपन का शिकार होने लगी थी । परिणामतः मास्टर बन चुके गुरूजी अब मास्टर साहब बन चुके थे । जो आज के शॉर्टकट और निकनेम के जमाने में मास्साब कहलाते हैं । मास्साब शब्द न जाने क्यूँ माँस साब जैसा लगता है।  यानि ऐसे साहब लोग जिनमें माँस की अधिकता हो । वैसे आज की जीवनशैली में कई अध्यापकों के लिए ये उपयुक्त शब्द है । अजी कुछ पर तो फबता भी है ।
तो बात चल रही थी आदरपुर की । आदरपुर के बच्चे गुरूजी का बहुत आदर - सम्मान करते थे । कुछ बच्चों में ये  सम्मान गुरूजी के राजदंड के तेज से प्रेरित था । 'भय बिन होत न प्रीति' इस लोकोक्ति का सबसे बड़ा उदाहरण आदरपुर में ही मिलता था । आदरपुर में उनके पढ़ाए कई बच्चे यथा - होशियार सिंह , आज्ञाकारी कुमार , पढ़ाकू लाल आगे चलकर बड़े अधिकारी भी बने थे । वे अधिकारी बनने के बाद गुरूजी का आभार प्रकट करने के लिए अक्सर गाँव आकर उनका आशीर्वाद लेते थे और उनका हाथ चूमकर कहते थे कि यदि इन हाथों ने उस समय डंडा न पकड़ा होता तो आज हम कलम न पकड़ पाए होते । सफल हो चुके ऐसे बच्चों को गुरूजी गले से लगा लेते थे ।
नव प्रवेशित बच्चे पहले तो गुरूजी और उनके राजदंड से डरते थे । पर धीरे-धीरे उन्हें समझ आ जाता था कि गुरूजी का सख्त स्वभाव ही जीवन को पिलपिला होने से बचाएगा । बच्चों के माता - पिता भी बच्चों को यही सिखाते थे कि स्वतंत्र कुमार जी तुम्हें जैसे पढ़ाएँगे तुम्हें पढ़ना पड़ेगा । वो तुम्हारी पिटाई लगाएँ ये हम ही उनसे कहकर आएँ हैं ताकि तुम हमसे भी उत्तम जीवन जी सको । बच्चों और उनके अभिभावकों की इसी सोच के कारण स्वतंत्र कुमार बच्चों को पढ़ाने के लिए कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र थे । उन पर किसी कानून की धार और दीवार पर लिखे लक्ष्यों का भार नहीं था ।
पर एक समय ऐसा आया जब गाँव के सबसे खराब कहे जाने वाले ग्रामीण असहनीय सिंह के बेटे नालायक सिंह ने विद्यालय में प्रवेश लिया । यूँ तो प्रवेश के समय गुरूजी से सब यही कहकर जाते थे कि गुरूजी हड्डी-हड्डी हमारी और माँस-माँस आपका । पर असहनीय सिंह तो उल्टा ये कहकर गया कि गुरूजी मेरे बेटे का ध्यान रखना ये उन बच्चों में से है जो पिटकर नहीं पढ़ते हैं । स्वभाव से सरल स्वतंत्र कुमार जी ये समझे कि इस बात का अर्थ है कि नालायक सिंह इतना होशियार है कि उस पर राजदंड उठाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी । जबकि असहनीय सिंह की बात का अर्थ था कि कितना भी पीट लो ये न पढ़ेगा ।
जिस दिन नालायक सिंह का प्रवेश हुआ उसी दिन लायक सिंह का भी प्रवेश हुआ था । अब बारी थी गुरूजी की कि वो दोनों को शिक्षा दें । गुरूजी ने प्रथम दिन से ही अपने प्रयास आरम्भ कर दिए थे । लायक सिंह यूँ तो पढ़ने में कुछ कमजोर था परंतु आज्ञाकारी था और कभी-कभार गुरूजी के राजदंड का अनमोल स्पर्श करने पर भी उसमें कोई दुर्भावना नहीं आई थी । वहीं नालायक सिंह ने 15 दिन गुजरने के बाद भी एक भी अक्षर नहीं सीखा । स्वतंत्र कुमार जी इसी आशा में थे कि असहनीय सिंह ने कहा है तो उनका पुत्र अवश्य ही कुछ विशेष होगा । पर 15 दिन गुजरने के बाद भी नालायक सिंह की शून्य उपलब्धि के कारण गुरूजी का पारा शून्य से सातवें आसमान पर चढ़ गया । असहनीय सिंह की बातों को दरकिनार रखते हुए उन्होंने नालायक सिंह पर राजदंड उठा लिया । नालायक सिंह नैतिक शिक्षा की कविताओं का सख्त विरोधी था । इतना विरोधी कि उसे तो 'हुआ सवेरा चिड़ियाँ बोलीं' कविता भी याद नहीं हो रही थी । फिर उस उद्दंड को राजदंड से तुकबन्दी कैसे पसंद आती । इसलिए वह राजदंड से बचने के लिए कक्षा से भाग गया ।
घर जाकर उसने पूरी घटना अपने पिता असहनीय सिंह को बताई । असहनीय सिंह को अपने बेटे का पिटना बिल्कुल गंवारा न गुजरा । वो गुरूजी को मारने के लिए घर से निकलने ही वाला था कि उसकी पत्नी कुटिल देवी ने उसे रोक लिया । उसने कहा कि गाँव के अधिकतर लोग गुरूजी को बहुत मानते हैं यदि उन पर हमला बोलेंगे तो उनके पक्ष के लोग आपको ठोंक देंगे । असहनीय सिंह ने कहा तो क्या मास्टर को ऐसे ही जाने दें । नालायक सिंह ने भी कहा कि मेरा अपमान हुआ है औऱ आप लोग कुछ कर नहीं रहे । तब कुटिल देवी ने कहा अपमान का बदला लेंगे पर मारपीट कर नहीं और ये राजदंड भी उनसे हमेशा के लिए छुड़वा देंगे । बस तुम्हें वही करना होगा जो मैं बता रही हूँ । नालायक सिंह उनकी बात ध्यान से सुनने बैठ गया ।
कुटिल देवी ने कहा बेटा नालायक हमारे पूर्वज अविवेकी सिंह के ही जमाने से हमारे खानदान में किसी के भी न पढ़ने की प्रथा रही है । गाँव के और बच्चे पढ़ते हैं इसलिए हमें दबाव में तुम्हें भी पढ़ने भेजना पड़ा । पर मास्टर ने तुम्हें पढ़ाने की कोशिश करके बहुत बड़ा गुनाह किया है । उसे मारोगे तब भी वो पढ़ाएगा । इसलिए अब कुछ ऐसा करना होगा कि वो पढ़ाने लायक ही न रहे । तुम जिस रास्ते पर चल रहे हो उस पर चलते रहो । पढ़ो मत और अपने जैसे न पढ़ने वालों की फ़ौज बनाओ । फिर देश में ऐसा माहौल बना दो कि कोई मास्टर डंडा नहीं उठा पाए । 
नालायक सिंह ने ये बात अपने जेहन में उतार ली । उसने अपने जैसे कई साथी ढूंढ़े । बदतमीज कुमार , दुर्भावना लाल आदि उसके मित्र बने । जैसी संगत थी वैसे ही सब लोग आवारा बने । जबकि लायक सिंह को साथ मिला सहनशीलदास , नम्रता कुमारी , आज्ञापालक सिंह जैसे लोगों का । इसलिए लायक सिंह व उसके साथी ऊँचे अधिकारी बने । जबकि नालायक सिंह और उसके साथियों ने मिलजुलकर एक संगठन बनाया और शिक्षा से जुड़े विद्वानों व मंत्रियों पर दबाव डालना आरम्भ किया कि इनकी भी माँगें मानी जाएँ पर इनके कुत्सित विचारों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया । तब इन्होंने एक युक्ति लगाई और  सर्वनाश कुमार की प्लास्टिक सर्जरी कराकर उसे उदार सिंह के रूप में प्रस्तुत किया और फिर उसके सहारे इन्होंने अपनी माँगें मनवाईं । इन्होंने दिखावावती की सहायता से ऐसी-ऐसी योजनाएँ प्रस्तुत कीं जो कि देखने में तो अच्छी लगती थीं पर दरअसल उसके पीछे भावना ये छुपी थी कि कैसे भी शिक्षा का अवनमन हो जाए । नई-नई कागजी कार्यवाही बढ़ने लगीं । स्वतंत्र कुमार गुरूजी न होकर बहुद्देशीय कर्मचारी बन चुके थे । स्वतंत्र कुमार जी जिस झोले में केवल घर का बना खाना लाया करते थे वो अक्सर फाइल्स और हिसाब-किताब की चीजों से भरा रहने लगा । पर स्वतंत्र कुमार जी कैसे भी थोड़ा-बहुत समय निकाल ही लेते थे पढ़ाने के लिए । यद्यपि उनके पूरा समय न दे पाने के कारण गुरुकुल में बच्चों की संख्या कम हो चुकी थी । पर फिर भी उन्हें जितना समय मिलता था वो अपनी पूरी क्षमता से कार्य करते थे ।
नालायक सिंह को ये बातें चुभने लगीं । वो गुरुकुल को पूर्णतया नष्ट करना चाहता था । इसलिए उसने अफवाह फैलानी आरम्भ की कि स्वतंत्र कुमार जी ही बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहते । सीधे सादे आदरपुर वालों को यही बातें सच लगने लगीं पर कुछ अभी भी स्वतंत्र कुमार जी पर भरोसा करते थे । अब नालायक सिंह ने अपने मित्र नकलचीदास को बुलाया । नकलचीदास विदेशीपन की अंधे होकर नकल करता था । नकलचीदास ने अपने चेले चोर सिंह से मिलकर विदेश से अक्लमंदसेन की मनोविज्ञान की रफ कॉपी चुरा ली । इस कॉपी को यहाँ नकलचीदास ने अपना बताकर जोर-शोर से प्रचार किया और बच्चों का हमदर्द बनने के बहाने उनका पतन करने लगा । जिस देश में राजा के पुत्र भी जंगल में जाकर हर प्रकार का कष्ट सहते थे और गुरु के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त करते  थे । उस संस्कृति को धता बताकर बच्चों से फूल से भी कोमल व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र कुमार को मजबूर कर दिया । विद्यालय के बाहर लिखे आदर्श वाक्य भय बिन होत न प्रीति पर कण्डे थुपने लगे ।
नालायक सिंह ने बच्चों के अभिभावकों में स्वतंत्र कुमार के प्रति नफरत भर दी और कानून बनवा दिया कि बच्चे पढ़ें न पढ़ें पर उन्हें उत्तीर्ण किया जाए । अब आदरपुर गाँव में स्वतंत्र कुमार जी के अतिरिक्त सभी स्वतंत्र थे । परीक्षा का भय अब सदैव के लिए छूट चुका था । परीक्षा का भय न होने से बच्चों का जब मन करता था वे तभी गुरुकुल में आते थे । आदरपुर का नाम भी आफतपुर हो चला था । आदरपुर नाम के समय जहाँ लोग गुरूजी का आदर करते थे । वहीं आफतपुर बनने के बाद लोगों ने मास्टर जी का रहना मुश्किल कर दिया था । कोई भी कभी भी आकर स्वतंत्र कुमार जी को कुछ भी सुना जाता था और उनकी कोई नहीं सुनता था । इसलिए अब गुरुकुल का नाम भी गुरुधुल हो चुका था । जहाँ गुरु के आदर्शों की धुलाई होती थी ।
एक दिन नालायक सिंह आफतपुर में आया और उसने स्वतंत्र कुमार जी से कहा मास्साब पहचाना मैं नालायक सिंह हूँ । मैं केवल 15 दिन के लिए आपका विद्यार्थी रहा था । आपने मुझ पर एक दिन राजदंड चलाया था वो भी पढ़ाई जैसी बेकार की चीज के लिए । तभी मैंने सोच लिया था कि आपको पंगु बनाकर रहूँगा । अब कैसा लग रहा है पढ़ाना छोड़कर सारे काम करते हुए । अब आप किसी को लायक सिंह जैसा बड़ा अधिकारी नहीं बना पाएँगे । वैसे भी लायक सिंह अधिकारी बनने के बाद भी मेरे सामने गुलाम की तरह ही है । मैं जब चाहूँ , जहाँ चाहूँ उसकी ट्रांसफर और पोस्टिंग कर सकता हूँ । क्या लाभ हुआ लायक के इतना पढ़ने का ।....................वैसे मास्साब आज गुरुधुल में बच्चे इतने कम क्यों हैं ?
स्वतंत्र कुमार जी ने मुँह लटकाते हुए कहा क्या करूँ जबसे नई-नई योजनाएँ आई हैं तब से लोगों का मेरे ऊपर से विश्वास हटा है और बच्चे आना कम हो गए हैं । लोग समझते हैं कि मैं पढ़ाता  नहीं बल्कि ऐंवे ही गाँव में घूमता रहता हूँ जबकि मैं किसी न किसी योजना के लिए आँकड़े जुटा रहा होता हूँ । नालायक सिंह ने एक जोरदार ठहाका लगाया और कहा हा हा हा मास्साब देखना अब कोई नहीं पढ़ेगा फिर भी सबके पास डिग्रियाँ होंगी । घर-घर से नालायक सिंह निकलेंगे । फिलहाल तो मैं आपके लिए एक आदेश लाया हूँ तनिक पढ़ लीजिए ।
कहकर नालायक सिंह ने एक आदेश स्वतंत्र कुमार जी की ओर बढ़ाया । उनके एक हाथ में राजदंड था सो वो दूसरे हाथ से आदेश लेकर पढ़ने लगे । उस आदेश में लिखा था कि अब कोई भी अध्यापक राजदंड का प्रयोग नहीं कर सकेगा यदि अध्यापक ने किसी को दंड दिया तो उल्टे अध्यापक को ही दंड मिलेगा । आदेश के अंत तक आते आते स्वतंत्र कुमार जी पसीने पसीने हो गए । आदेश उनके हाथ से छूट गया । उनके हाथ ये सोचकर कँपकँपा गए थे कि जिस राजदंड की सहायता से वो दशकों से बच्चों का भविष्य बना रहे हैं , वो आज समाज की दृष्टि में शत्रु कैसे बन गया । पसीने से तर गुरूजी दु:खी होकर कुर्सी पर बैठ गए और अवाक से शून्य में कुछ देखने लगे । उनके कुछ संवेदनशील बच्चे अपनी कॉपी लेकर उसके गत्ते से उनकी हवा करने लगे । एक बच्ची पानी भी ले आई । नालायक सिंह ने तुरंत इस दृश्य का एक फोटो खींचा । अगले दिन इस फोटो के साथ समाचार पत्र में एक समाचार का शीर्षक था – 
आरामतलब हुए मास्साब , राजदंड की समाप्ति के आदेश को जमीन पर फेंका , बच्चों को पढ़ाने के बजाय उन्हें अपना नौकर समझकर पंखा झलवा रहे और पानी मँगवा रहे ।

लेखक 
प्रांजल सक्सेना


उपरोक्त लेख महेश चंद्र पुनेठा जी की इस कविता से प्रेरित 

क्या सचमुच ऐसा है?

ठोक-पीटकर इंसान गढ़ने वाले

हम ज्ञानी
हम अंतर्यामी
हम गंगलोढ़ों को मूर्ति में बदलने वाले
तुलसी से सीखा हमने-
भय बिन होत न प्रीत
कबीर से
गुरू-शिष्य परम्परा ।

हम जानते हैं अच्छी तरह
सीखने को अनुशासन बहुत जरूरी है
डंडा छूटा ,बच्चा बिगड़ा
बिना पीटे लोहे में धार कहाँ
हमने भी तो ऐसे ही सीखा
गुरू कृपा बिन ज्ञान कहाँ
स्साले समझते नहीं कुछ बच्चे
हम दुश्मन तो नहीं उनके

कुछ सिरफिरे हैं हमारे बीच भी
बधेका , नील ,वसीली , होल्ट ......
पता नहीं किस-किस का नाम लेते हैं
सस्ती लोकप्रियता पाने को
सिर चढ़ाते हैं बच्चों को
जानते नहीं कि बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहे हैं।
आखिर बच्चों को क्या पात सही-गलत का
कच्ची मिट्टी के लौंदे ठहरे बच्चे

बच्चे क्या जानते हैं
उन्हें तो हम सीखाएंगे ना!
हम नहीं देंगे छूट तनिक भी
हम खूब जानते हैं प्रतिफल उसका
सिद्धांत की बात कुछ और होती है
व्यवहार की कुछ और
घोड़े को कैसे कब्जे में रखा जाता है घुड़सवार ही जानता है।

समझते नहीं वे
अखरोट का हर दाना नहीं होता दॉती
बुद्धि तो ईश्वरीय देन है
फिर कुछ किस्मत का खेल है
किस्मत में नहीं विद्या
तब भला कहॉ से आएगी।
फिर सभी पढ़ने-लिखने में तेज हो गए
तब दुनिया कैसे चल पाएगी।

हमें कौन , क्या बताएगा
हम हैं ज्ञानी
हम हैं राष्ट्र निर्माता
हम हैं भाग्यविधाता
हम हैं ठोक-पीटकर इंसान गढ़ने वाले
ठोक-पीटकर इंसान बनाएंगे
कहने वाले कुछ भी कहते जाएं।

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डिस्क्लेमर : - यह कहानी एक काल्पनिक साहित्यिक उपज मात्र है। इसका किसी भी देश , राज्य अथवा व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस कहानी का  वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। यदि किसी से जुड़ाव प्रतीत होता हो तो भी इसे काल्पनिक  माना जाए।


लेखक
प्रांजल सक्सेना 
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सोमवार, 4 जुलाई 2016

केला का झमेला


कहाँ रह गए थे आप ? ये भी कोई समय है घर आने का ? ”
शाम को 5 बजे घर में घुसते हुए बड़े साहब की पत्नी नर्मदा ने साहब की साहबगिरी को आड़े हाथों ले लिया । अपने मातहतों पर रौब जमाने में ख्याति प्राप्त बड़े साहब ( दिनेश ) लगभग मिमियाते हुए बोले - आज मीटिंग थी इसलिए लेट हो गया । पर तुम आज तुम मेरा इंतजार कैसे कर रही थीं ? टीवी खराब हो गया क्या ? ”
नर्मदा - टीवी नहीं खराब है । मेरा मूड खराब है ।
दिनेश - “ क्यों ऐसा क्या हो गया अब क्या आज फिर किसी ने तुम्हें आंटी कह दिया ? देखो कितना भी खिजाब लगा लो पर एक उम्र ऐसी आ ही जाती है जब उम्र छुपाना मुश्किल होता है । इसलिए अब इस बात को दिल पर मत लिया करो ।
नर्मदा - “ क्या आप भी जब देखिए मेरी उम्र के पीछे पड़े रहते हैं । जब तक  भारत में एक भी ब्यूटी पार्लर है कोई भी  औरत बूढ़ी नहीं हो सकती ये जान लीजिए । मैं तो बस केले न मिलने की वजह से परेशान हूँ ।
दिनेश - केले ? ”
नर्मदा - “ हाँ केले । मेरे लिए सोमवार के व्रत में केले लाने की जिम्मेदारी आपकी होती है । पर आज आप पता नहीं क्यों मेरे उठने से पहले ही चले गए थे । मैंने दीपू को भेजा था केले लेने पर उसने बताया कि आज उसे केले का एक भी ठेला नहीं मिला ।
दिनेश - “ अरे ! मेरा आज सुबह जल्दी जाना जरूरी था । सात बजे ही निकलना था । आज 4 जुलाई थी न मुझे चेक करना था कि किस मास्टर ने कितने बच्चों को फल बाँटें । फल बाँटें भी कि नहीं । एक बजे तक स्कूलों में घूमता रहा फिर ऊँचे साहब को रिपोर्ट देकर आया । इसलिए आज इतना व्यस्त रहा ।
नर्मदा - अरे ! आपकी व्यस्तता नहीं जाननी मुझे । मुझे तो सिर्फ इतना बताइए कि आज केले क्यों नहीं मिले ।
दिनेश ने ठोड़ी पर हाथ रखा और कुछ सोचने लगा । ठोड़ी पर हाथ रखना सोचने की अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा होती है । इस मुद्रा में आने के बाद सामने वाले बड़े से बड़े बातूनी को कुछ देर के लिए शांत किया जा सकता है ताकि इंसान शांति से कुछ सोच सके । दिनेश ने भी इस अंतरराष्ट्रीय मुद्रा को अपनाकर अपने मस्तिष्क पर केले न मिल पाने की अति गम्भीर व अंतरब्रह्मांडीय समस्या पर विचार किया ।
इससे पहले नर्मदा टोकती दिनेश ने कहा - हाँ समझ गया । आज जहाँ भी विद्यालय में चेक करने गया सब जगह केले ही बंट रहे थे । सारे मास्टरों ने केले खरीदे थे इसलिए केले आज ठेलों से उड़ गए होंगे ।
नर्मदा - अरे ! तो सबने केले ही क्यों लिए और भी तो फल होते हैं । मेरे ही प्रिय फल पर क्यों टूट पड़े ये मास्टर ? ”
दिनेश - “ अब एमडीएम का मारा मास्टर केले न लेगा तो क्या लेगा । केला सबसे सेफ साइड थी मास्टरों के लिए । जैसे तुम्हारे लिए मायके जाने की धमकी होती है । आम कार्बेट लगा आ रहा है । जामुन बाँट नहीं सकते। सेब तो इतने महँगे हैं कि मास्टर अपने घर के लिए खरीदने से पहले सौ बार सोचे । इसलिए आज सबने केले लिए क्योंकि ये ही सस्ता फल था और वैसे भी मास्टरों में आपस में पूछ - पूछकर काम करने की आदत होती है । ऊपर से आजकल व्हाट्सएप्प और फेसबुक चल गए हैं । किसी ने केले का सुझाव दिया होगा तो लहर चल गई होगी मास्टरों में ।
नर्मदा - ये फल तो हर सोमवार को बँटा करेंगे तो क्या हर सोमवार को केला बाजार से गायब जो जाया करेगा ? ”
दिनेश - “ बिल्कुल क्योंकि मास्टर केला ही बाँटेंगे । वैसे भी आज पहला दिन था । आगे से देखना हर सोमवार को फल बंटेंगे तो सोमवार को ज्यादा बच्चे आया करेंगे और केले की कालाबाजारी तक हो जाएगी । मास्टर दो दिन पहले से स्टॉक कर लिया करेंगे ।
नर्मदा - हे ! भगवान ऐसा होगा तो मेरा क्या होगा ? मैं तो सोमवार का व्रत भी केले के भरोसे रखती हूँ । कुछ तो करिए ।
दिनेश - “ अरे ! तो मैं क्या करूँ ? फल तो बंटने ही हैं न और मास्टर केले के बजाय कुछ बाँटेंगे नहीं । आगे से ऐसा करेंगे कि दो दिन पहले ही केले ले आया करेंगे । फ्रिज में रख देंगे ताकि तुम्हारा व्रत आराम से हो सके ।
नर्मदा - “ न जी न । फ्रिज में तो कतई न लाकर रखेंगे । फ्रिज में तो दुनिया भर का बासी खाना रखा रहता है । कभी-कभी जूठा भी । ऐसे में व्रत की चीज फ्रिज में कैसे रखूँ । आप कोई और तरकीब लगाइए ।
दिनेश - “ अब इसमें तरकीब क्या लगाऊँ । मास्टरों से कोई नहीं जीत सकता । इन्हें जब काम करना होता है तब ये कैसे भी कर ही लेते हैं । केले तो इनसे कोई न झपट पाएगा । तुम एक काम करो सोमवार के अलावा भी तो छः दिन होते हैं सप्ताह में । किसी और दिन व्रत रख लिया करो तो केले की किल्लत न होगी । ” 

नर्मदा - “ हे भगवान ! आप तो नास्तिकों को भी पीछे छोड़ दें । आज दिन बदलने को कह रहे हैं कल धर्म बदलने को न कह दें । देखिए कुछ भी हो जाए पर सोमवार का व्रत मैं नहीं  छोड़ सकती । आख़िरकार इसी व्रत से तो अच्छा पति मिलता है और शादी के बाद रखने से पति पत्नी से ही चिपका रहता है । इसी व्रत के बल पर तो कई बेवकूफ लड़कियों को भी अच्छा पति मिल जाता है । अभी चिंकी 11 की है आगे बढ़ी होगी तब वो भी ये व्रत रखा करेगी । उसे भी केले बहुत पसंद हैं । आगे भी ऐसे ही किल्लत रही तो केले कम ही होंगे तब हमारा क्या होगा ? केले तो हमें चाहिए ही । मुझे ठीकठाक पति मिल गया है पर मुझे चिंकी के लिए आपसे भी बढ़िया दामाद चाहिए । इसलिए कुछ भी करिए पर केले लाइए ।
दिनेश - “ अरे ! एक तो नौकरी में वैसे ही पचासियों समस्याएँ हैं । ऊपर से तुम ये नई परेशानी पैदा कर रही हो । केले तो अब मास्टरों की संपत्ति मानकर चलो ।
नर्मदा - “ अरे ! ऐसे कैसे चलेगा । कैसे निष्ठुर बाप हैं आप । आपको चिंकी के भविष्य की जरा भी चिंता नहीं है । मैंने बहुत सारे नाटक देखकर ये जानकारी जुटाई है कि सोमवार का व्रत यानि अच्छा पति और हम माँ बेटी के लिए व्रत यानि कि सुबह से शाम तक केले ही केले । अब इसका इंतजाम कैसे हो ये आपकी जिम्मेदारी । वर्ना मैं अपने एनआरआई भाई के पास रहने चली जाऊँगी क्योंकि भारत में तो मास्टर केले छोड़ेंगे नहीं ।
दिनेश - “ ओफ्फो ! केले , केले , केले तुम औरतें भी एक बात की जिद्द पकड़ लेती हो । अगर केला नहीं मिलेगा तो तुम मुझे अकेला छोड़ दोगी । देखो केला तो अब सोमवार को मास्टरों के अलावा बन्दरों तक को मिलना मुश्किल है । इसलिए अब एक ही रास्ता है । अगले सोमवार को मेरी ड्यूटी वृक्षारोपण की चेकिंग में है कि किस मास्टर ने कितने वृक्ष लगाए तो एक काम करो तुम भी अगले सोमवार को एक पेड़ लगा लो ......वो भी केले का । घर में ही केले का पेड़ होगा । तो जब चाहों तब व्रत रखना और जब चाहना तब केला खाना । पर्यावरण की भी रक्षा होगी और मेरी भी हो जाएगी ।
नर्मदा - “ ठीक है जी एक पेड़ लगा लूँगी पर एक बात तो बताइए जी , केले का पेड़ पहले दिन से तो फल देने लगेगा नहीं तो जब तक फल नहीं आना शुरू होते तब तक हम कहाँ से केले खाएँगे ? ”
अब तक केला , केला सुनकर तंग आ चुके दिनेश ने कहा - करोगी क्या ? तुम कुछ मत करना । बस घर बैठे डिमांड करती रहना । करूँगा तो मैं अगले सोमवार को । जब वृक्षारोपण की जाँच को जाऊँगा तो दो-चार जगह केले में कमी निकाल दूँगा । कहीं साइज के नाम पर तो कहीं क्वालिटी के नाम पर ।  एक-दो जगह खाद्य विभाग की टीम को 'निर्देश' देकर भिजवा दूँगा । जानती हो अगर खाद्य विभाग वाले अपनी पर आ जाएँ तो अमृत में भी कमी निकाल दें फिर केला किस पेड़ की मूली है । मैं मास्टरों पर कार्यवाही करने का इतना डर बिठा दूँगा कि अगले सोमवार से उन्हें केलाफोबिया हो जाएगा । फिर सारे मास्टर आपसी सलाह से किसी और फल पर सहमत हो जाएँगे ...... तुमसे बस एक गुजारिश है । अब अपनी पसंद मत बदलना । सोमवार को व्रत रखना तो केला ही खाना । क्योंकि तुमने पसन्द बदली तो मास्टरों में दूसरे फल के प्रति डर बिठाना पड़ेगा । ” 


लेखक
प्रांजल सक्सेना 
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