शनिवार, 27 मई 2017

हाय! रे गर्मी

छुटकी गर्मी बोली अकड़कर,
अभी तो बड़की भी आएगी।
अभी तो हाय गर्मी बोला है,
वो हाय - हाय गर्मी बुलवाएगी।

कूलर तो फेल हो चुका है,
एसी भी फेल हो जाएगा।
टेबिल, सीलिंग फैन का जनाजा,
जल्द ही निकल जाएगा।

फ्रिज से बाहर निकलते ही,
पानी की ठंडक होगी गुल।
पसीने की गंगा - जमुना से,
मेकअप सारा जाएगा धुल।

शरबत पीना चाहें कोल्ड ड्रिंक,
राहत फिर भी नहीं मिलेगी।
जिस धूप को बुलाया था जाड़े में,
वो जून की दुपहरी में खिलेगी।

बरसात के भरोसे तो रहना मत,
वो तो कब्ज की शिकार है।
जरूरत पर न होती बूँदाबाँदी भी,
बिन जरूरत होती मूसलाधार है।

ज्यादा दुआ मत करना बारिश की,
वर्ना वो बाढ़ को लेकर आएगी।
निचले मकानों में रहने वालों के,
बर्तन, चप्पल आँगन में तैरवाएगी।

अभी तो बचुआ मई ही चल रही है,
जून का जलवे देखना बाकि है।
तुम्हारे शरीर का बहता हुआ पसीना,
बड़की गर्मी का खास साकी है।

मैं तो केवल ट्रेलर दिखा रही हूँ,
असली फ़िल्म तो आने वाली है।
मैं तो हूँ निरुपमा राय सी दुःखी माँ,
वो तो शादीशुदा बड़ी साली है।

आँधी का थप्पड़ खाकर मैं तो,
एक कोने में जाती हूँ दुबक।
पर बड़की को ये चोंचले पसंद नहीं,
ठंडी हवा को भी सिखा दे सबक।

ले आना कितने भी काले बादल,
वो गमस से और गर्मी बढ़ाएगी।
हो गयी जो हल्की - फुल्की बारिश,
तो उसकी लॉटरी लग जाएगी।

डाल - डालकर कूलर में ठंडा पानी,
और गटक - गटककर बर्फ ठंडी।
मेरा तो घोर बहिष्कार कर दिया है,
एसी का बटन दिखाए लाल झंडी।

पर बड़की के सामने एक न चलेगी,
वो आज की आधुनिक नारी है।
कूलर, एसी, फ्रिजवादी सोच पर,
उसकी अंगारी गर्माहट भारी है।

कल ही बड़की से मेरी बात हुई है,
सामान पैक करके वो लैंड करेगी।
लगा लेना एक कमरे में दो - दो एसी,
पर वो तुम्हारी एक भी न सुनेगी।

सोचोगे तुम इसे कैसे भगाएँ,
पर तुम्हारे कहे से वो न जाएगी।
तुम रोना चाहोगे ठंडी बर्फ के,
पर वो पसीने के आँसू रुलवाएगी।

जब काटे हैं जमकर पेड़ और जंगल,
तो फिर सजा भी तुम्हें भुगतनी है।
गर्मी के टोल टैक्स की पर्ची भी,
तुम्हारे नाम पर ही कटनी है।

नये पौधे के साथ सेल्फी खिंचवाकर,
अपने को पर्यावरण प्रेमी कहते हो।
फिर कभी उन पौधों की सुध न लेते,
इसीलिए घोर गर्मी को सहते हो।

सोशल मीडया पर पढ़ते हो मैसेज,
कभी उन पर अमल भी करो।
जब चाहते हो प्रकृति से लाभ,
तो धरती को हरियाली से भरो।

न होगा इस कविता को पढ़ने से कुछ,
जो मंथन करे बिना ताली बजायी।
ऐ! मानव सोचो प्रकृति के बारे में,
देखो दबे पाँव बड़की भी आयी।




रचनाकार
प्रांजल सक्सेना 
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