शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

शौचालय और पुरुष दिवस

 शौचालय में बैठा पुरुष अक्सर ये सोचता है,

बदहजमी वाला क्या खाया था उसे खोजता है।


हींगोली, पुदीन हरा, ईनो में कौन है श्रेष्ठ,

हर दावत के बाद अध्ययन करता है यथेष्ट।


न छोले-भटूरे बिन सुबह है, न चावल बिना रात।

पानी भी दो घण्टे बाद पिएँ, ये भला क्या हुई बात।


ये चाउमीन, बर्गर, चाटवाले वाले यूँ भूखे मर जाएँगे,

गर काम की भागमभाग में हम इन्हें न खाएँगे।


मोमोज, समोसे का आखिर क्या है कुसूर,

आउटिंग के समय भला कैसे रहें इनसे दूर।


चाहें गैस का उत्पादन करता रहे हमारा शरीर,

वो खाना हम न छोड़ेंगे जिसमें होता खमीर।


क्या हुआ जो हो जाता है गड़बड़ हमारा पेट,

शौचालय झेल लेगा हमारे 'स्टूलों' का रेट। 


जब कमरे के दस और रसोई के बीस चक्कर लगते हैं,

तो ये शौचालय क्या दो बार का भी हक नहीं रखते हैं।


सुबह के बाद दिन भर शौचालय में क्यों न हो रौनक,

गरिष्ठ खाना खाकर पुरुष बनते शौचालय के पूरक।


इन महिलाओं से क्या होगा जो पल-पल टोकती हैं,

ये मत खाओ, वो मत पियो कहकर रोकती हैं।


इनकी चले तो हो जाएँ शौचालय बिल्कुल बेकार,

हम पुरुष ही इसे दिन भर रखते हैं गुलजार।


शौचालय की सीट भी हमें देख खिल जाती है,

हमारे पीले उद्गारों में उसे खुशी मिल जाती है।


अजी शौचालय और पुरुष एक-दूसरे पर हैं निर्भर,

न सुनो नसीहतें किसी की खाओ थाली भर-भर।


शौचालय और पुरुष दिवस इसीलिए एक दिन मनाते हैं,

शौचालय की असली रौनक तो पुरुष ही कहलाते हैं।


रचनाकार
प्रांजल सक्सेना 
 कच्ची पोई ब्लॉग पर रचनाएँ पढ़ने के लिए क्लिक करें-  
कच्ची पोई ब्लॉग 
 गणितन ब्लॉग पर रचनाएँ पढ़ने के लिए क्लिक करें- 
गणितन ब्लॉग 
कच्ची पोई फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें-  
कच्ची पोई फेसबुक पेज 
गणितन फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें-   
गणितन फेसबुक पेज





4 टिप्‍पणियां: