बुधवार, 30 नवंबर 2016

डॉ0 साहब बहुत अच्छे हैं

डॉ0 साहब बहुत अच्छे हैं। डॉ0 साहब पहले बीमारी पूछते हैं फिर कई सारे टेस्ट कराने को बोलते हैं, तब चिकित्सा करते हैं। जबकि वैद्य जी हाथ पकड़कर ही बीमारी बता देते थे। पर डॉ0 साहब बहुत अच्छे हैं। डॉ0 साहब के पास एमआरआई है, सीटी स्कैन है, ईसीजी है, अल्ट्रासाउंड है, एक्सरे है, कुछ नहीं तो स्टेथोस्कोप तो हर गली-मोहल्ले के डॉ0 के पास है और वैद्य जी...वैद्य जी के पास तो बस नाड़ी ज्ञान ही है। इसलिए डॉ0 साहब बहुत अच्छे हैं। डॉ0 साहब के पास महँगी-महँगी दवाई हैं जो रसायनों से बनी हैं और चमकदार पैकिंग में भी आती हैं जबकि वैद्य जी तो खुले आसमान के नीचे बेमतलब की गहनता से उपयोगी बूटी ढूँढ़ते हैं। डॉ0 साहब के यहाँ पर्चा लगाकर घण्टों इंतजार करने के बाद नम्बर आता है पर डॉ0 साहब के पास ए0सी0 है। इसलिए इंतजार भी मायने नहीं रखता। वैद्य जी के पास क्या है वो गूलर की लकड़ी का स्टूल जिसके पायों पर वो हर साल बढ़ई से कील ठुकवाकर पिछले 10 सालों से चला रहे हैं। ऊपर से उनकी छोटी सी अलमारी में बेतरतीब रखीं वो काँच की शीशियाँ जिनमें किसी बड़ी ब्रांड का नाम तक नहीं लिखा। ऊपर से वैद्य जी के पास कोई डिग्री भी तो नहीं तो उनकी दवाई का क्या भरोसा। आखिर डॉ0 साहब के पास बड़ी सी डिग्री है जिसकी फोटो स्टेट उनके केबिन में शीशे में जड़ी हुई रखी है। डॉ0 साहब को डिग्री लिए जितने साल बीते जा रहे हैं उतनी ही उनकी फ़ीस बढ़ती जा रही है। फ़ीस भले ही हो पर परहेज से तो बचत है। वैद्य जी तो चीनी तक खाने को मना करते हैं। बताओ तो जुबान मीठी करने वाली कोई चीज बुरी हो सकती है भला। वैद्य जी के पास तो दवाई नहीं परहेज की दुकान है। इसीलिए तो डॉ0 साहब ही अच्छे हैं। माना कि डॉक्टरी दो-चार शताब्दी ही पुरानी है जबकि वैद्य हजारों साल से चले आ रहे हैं। पर डॉक्टरी में अंग्रेजियत का एहसास है। जबकि वैद्य जी तो कड़वे नीम के फायदे बता-बताकर कान तक कड़वे कर देते हैं। इसीलिए डॉ0 साहब ही अच्छे हैं। सफेद कोट में क्या लगते हैं डॉक्टर साहब और एक वैद्य जी हैं जो खद्दर पहने चर्र-चर्र करती कुर्सी पर बैठकर मरीज का हाल सुनते हैं। सरकार को भी डॉक्टरों की अहमियत पता है इसीलिए तो मेडिकल कॉलेजों और दवा की दुकानों पर ध्यान दे रही है। अगर सरकार वैद्य जी की बातें सुने तो सारी जमीनों पर जड़ी-बूटी वाले पेड़-पौधे ही लग जाएँ और रहने को मकान तक न मिले। डॉक्टर साहब और लोगों को भी रोजगार देते हैं। तभी तो सिरदर्द की ऐसी गोली देते हैं जिसके साइड इफेक्ट से किडनी खराब हो जाती है और किडनी वाले डॉक्टर साहब का भला होता है फिर किडनी वाले डॉक्टर साहब इतने डायलिसिस कराते हैं कि आदमी की नींद उड़ जाए और एक बार जिसने नींद की गोली खायी वो तो मेडिकल स्टोर से पैर ही नहीं हटा पाता और ये वैद्य जी तो सबको रोज चार तुलसी की पत्ती खाने को कहते हैं जिससे कोई रोगी ही न हो। वैद्य जी की कितनी छोटी सोच है न। इनकी मानें तो कितने ही भूखे मर जाएँ। जबकि डॉक्टर साहब वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से काम करते हैं। इसीलिए डॉक्टर साहब बहुत अच्छे हैं। 


लेखक
प्रांजल सक्सेना 
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रविवार, 24 जुलाई 2016

राजदंड का अंत

  बहुत साल पुरानी बात है । इतनी साल पुरानी कि इस कहानी को पढ़ने वाले आप लोगों में से जिनके बाल सफेद हैं वे मंडप में न बैठे होंगे और जिनके बाल काले हैं वे मुक्त आत्मा बनकर उपयुक्त गर्भ की तलाश में होंगे ।
खैर कहानी पर आते हैं तो एक गाँव था आदरपुर उस गाँव में स्वतंत्र कुमार नाम के अध्यापक स्थानीय गुरुकुल में तैनात थे । गुरुकुल के भवन के नाम पर थी विशाल बरगद की छाँव । उस गाँव के सब बच्चे व ग्रामीण स्वतंत्र कुमार जी को गुरूजी कहकर ही पुकारते थे । ये वो समय था जब लोगों में अपने को आधुनिक सिद्ध करने की ललक नहीं थी और जिनमें ललक थी उनकी आधुनिकता का पैमाना चार अंग्रेजी शब्द नहीं हुआ करते थे । इसलिए उस समय के अध्यापक को किसी टेलर/मोची/बैण्ड के व्यवसाय के ज्ञाता की भाँति मास्टर की उपाधि नहीं मिली थी । पर शनै:-शनै: अंग्रेजों से आजादी की वर्षगाँठ मनती रही और लोग अंग्रेजों को भगाने के बाद भी अंग्रेजी के निकटस्थ होते रहे । परिणामतः गुरूजी को मास्टर कहा जाने लगा । मास्टर शब्द का शोधन लगातार चलता रहा । जब अध्यापकों का वेतन बढ़ा और कुर्ते पायजामे का स्थान पैंट शर्ट ने ले लिया । तब नम्रता भी कुछ-कुछ धुंधलेपन का शिकार होने लगी थी । परिणामतः मास्टर बन चुके गुरूजी अब मास्टर साहब बन चुके थे । जो आज के शॉर्टकट और निकनेम के जमाने में मास्साब कहलाते हैं । मास्साब शब्द न जाने क्यूँ माँस साब जैसा लगता है।  यानि ऐसे साहब लोग जिनमें माँस की अधिकता हो । वैसे आज की जीवनशैली में कई अध्यापकों के लिए ये उपयुक्त शब्द है । अजी कुछ पर तो फबता भी है ।
तो बात चल रही थी आदरपुर की । आदरपुर के बच्चे गुरूजी का बहुत आदर - सम्मान करते थे । कुछ बच्चों में ये  सम्मान गुरूजी के राजदंड के तेज से प्रेरित था । 'भय बिन होत न प्रीति' इस लोकोक्ति का सबसे बड़ा उदाहरण आदरपुर में ही मिलता था । आदरपुर में उनके पढ़ाए कई बच्चे यथा - होशियार सिंह , आज्ञाकारी कुमार , पढ़ाकू लाल आगे चलकर बड़े अधिकारी भी बने थे । वे अधिकारी बनने के बाद गुरूजी का आभार प्रकट करने के लिए अक्सर गाँव आकर उनका आशीर्वाद लेते थे और उनका हाथ चूमकर कहते थे कि यदि इन हाथों ने उस समय डंडा न पकड़ा होता तो आज हम कलम न पकड़ पाए होते । सफल हो चुके ऐसे बच्चों को गुरूजी गले से लगा लेते थे ।
नव प्रवेशित बच्चे पहले तो गुरूजी और उनके राजदंड से डरते थे । पर धीरे-धीरे उन्हें समझ आ जाता था कि गुरूजी का सख्त स्वभाव ही जीवन को पिलपिला होने से बचाएगा । बच्चों के माता - पिता भी बच्चों को यही सिखाते थे कि स्वतंत्र कुमार जी तुम्हें जैसे पढ़ाएँगे तुम्हें पढ़ना पड़ेगा । वो तुम्हारी पिटाई लगाएँ ये हम ही उनसे कहकर आएँ हैं ताकि तुम हमसे भी उत्तम जीवन जी सको । बच्चों और उनके अभिभावकों की इसी सोच के कारण स्वतंत्र कुमार बच्चों को पढ़ाने के लिए कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र थे । उन पर किसी कानून की धार और दीवार पर लिखे लक्ष्यों का भार नहीं था ।
पर एक समय ऐसा आया जब गाँव के सबसे खराब कहे जाने वाले ग्रामीण असहनीय सिंह के बेटे नालायक सिंह ने विद्यालय में प्रवेश लिया । यूँ तो प्रवेश के समय गुरूजी से सब यही कहकर जाते थे कि गुरूजी हड्डी-हड्डी हमारी और माँस-माँस आपका । पर असहनीय सिंह तो उल्टा ये कहकर गया कि गुरूजी मेरे बेटे का ध्यान रखना ये उन बच्चों में से है जो पिटकर नहीं पढ़ते हैं । स्वभाव से सरल स्वतंत्र कुमार जी ये समझे कि इस बात का अर्थ है कि नालायक सिंह इतना होशियार है कि उस पर राजदंड उठाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी । जबकि असहनीय सिंह की बात का अर्थ था कि कितना भी पीट लो ये न पढ़ेगा ।
जिस दिन नालायक सिंह का प्रवेश हुआ उसी दिन लायक सिंह का भी प्रवेश हुआ था । अब बारी थी गुरूजी की कि वो दोनों को शिक्षा दें । गुरूजी ने प्रथम दिन से ही अपने प्रयास आरम्भ कर दिए थे । लायक सिंह यूँ तो पढ़ने में कुछ कमजोर था परंतु आज्ञाकारी था और कभी-कभार गुरूजी के राजदंड का अनमोल स्पर्श करने पर भी उसमें कोई दुर्भावना नहीं आई थी । वहीं नालायक सिंह ने 15 दिन गुजरने के बाद भी एक भी अक्षर नहीं सीखा । स्वतंत्र कुमार जी इसी आशा में थे कि असहनीय सिंह ने कहा है तो उनका पुत्र अवश्य ही कुछ विशेष होगा । पर 15 दिन गुजरने के बाद भी नालायक सिंह की शून्य उपलब्धि के कारण गुरूजी का पारा शून्य से सातवें आसमान पर चढ़ गया । असहनीय सिंह की बातों को दरकिनार रखते हुए उन्होंने नालायक सिंह पर राजदंड उठा लिया । नालायक सिंह नैतिक शिक्षा की कविताओं का सख्त विरोधी था । इतना विरोधी कि उसे तो 'हुआ सवेरा चिड़ियाँ बोलीं' कविता भी याद नहीं हो रही थी । फिर उस उद्दंड को राजदंड से तुकबन्दी कैसे पसंद आती । इसलिए वह राजदंड से बचने के लिए कक्षा से भाग गया ।
घर जाकर उसने पूरी घटना अपने पिता असहनीय सिंह को बताई । असहनीय सिंह को अपने बेटे का पिटना बिल्कुल गंवारा न गुजरा । वो गुरूजी को मारने के लिए घर से निकलने ही वाला था कि उसकी पत्नी कुटिल देवी ने उसे रोक लिया । उसने कहा कि गाँव के अधिकतर लोग गुरूजी को बहुत मानते हैं यदि उन पर हमला बोलेंगे तो उनके पक्ष के लोग आपको ठोंक देंगे । असहनीय सिंह ने कहा तो क्या मास्टर को ऐसे ही जाने दें । नालायक सिंह ने भी कहा कि मेरा अपमान हुआ है औऱ आप लोग कुछ कर नहीं रहे । तब कुटिल देवी ने कहा अपमान का बदला लेंगे पर मारपीट कर नहीं और ये राजदंड भी उनसे हमेशा के लिए छुड़वा देंगे । बस तुम्हें वही करना होगा जो मैं बता रही हूँ । नालायक सिंह उनकी बात ध्यान से सुनने बैठ गया ।
कुटिल देवी ने कहा बेटा नालायक हमारे पूर्वज अविवेकी सिंह के ही जमाने से हमारे खानदान में किसी के भी न पढ़ने की प्रथा रही है । गाँव के और बच्चे पढ़ते हैं इसलिए हमें दबाव में तुम्हें भी पढ़ने भेजना पड़ा । पर मास्टर ने तुम्हें पढ़ाने की कोशिश करके बहुत बड़ा गुनाह किया है । उसे मारोगे तब भी वो पढ़ाएगा । इसलिए अब कुछ ऐसा करना होगा कि वो पढ़ाने लायक ही न रहे । तुम जिस रास्ते पर चल रहे हो उस पर चलते रहो । पढ़ो मत और अपने जैसे न पढ़ने वालों की फ़ौज बनाओ । फिर देश में ऐसा माहौल बना दो कि कोई मास्टर डंडा नहीं उठा पाए । 
नालायक सिंह ने ये बात अपने जेहन में उतार ली । उसने अपने जैसे कई साथी ढूंढ़े । बदतमीज कुमार , दुर्भावना लाल आदि उसके मित्र बने । जैसी संगत थी वैसे ही सब लोग आवारा बने । जबकि लायक सिंह को साथ मिला सहनशीलदास , नम्रता कुमारी , आज्ञापालक सिंह जैसे लोगों का । इसलिए लायक सिंह व उसके साथी ऊँचे अधिकारी बने । जबकि नालायक सिंह और उसके साथियों ने मिलजुलकर एक संगठन बनाया और शिक्षा से जुड़े विद्वानों व मंत्रियों पर दबाव डालना आरम्भ किया कि इनकी भी माँगें मानी जाएँ पर इनके कुत्सित विचारों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया । तब इन्होंने एक युक्ति लगाई और  सर्वनाश कुमार की प्लास्टिक सर्जरी कराकर उसे उदार सिंह के रूप में प्रस्तुत किया और फिर उसके सहारे इन्होंने अपनी माँगें मनवाईं । इन्होंने दिखावावती की सहायता से ऐसी-ऐसी योजनाएँ प्रस्तुत कीं जो कि देखने में तो अच्छी लगती थीं पर दरअसल उसके पीछे भावना ये छुपी थी कि कैसे भी शिक्षा का अवनमन हो जाए । नई-नई कागजी कार्यवाही बढ़ने लगीं । स्वतंत्र कुमार गुरूजी न होकर बहुद्देशीय कर्मचारी बन चुके थे । स्वतंत्र कुमार जी जिस झोले में केवल घर का बना खाना लाया करते थे वो अक्सर फाइल्स और हिसाब-किताब की चीजों से भरा रहने लगा । पर स्वतंत्र कुमार जी कैसे भी थोड़ा-बहुत समय निकाल ही लेते थे पढ़ाने के लिए । यद्यपि उनके पूरा समय न दे पाने के कारण गुरुकुल में बच्चों की संख्या कम हो चुकी थी । पर फिर भी उन्हें जितना समय मिलता था वो अपनी पूरी क्षमता से कार्य करते थे ।
नालायक सिंह को ये बातें चुभने लगीं । वो गुरुकुल को पूर्णतया नष्ट करना चाहता था । इसलिए उसने अफवाह फैलानी आरम्भ की कि स्वतंत्र कुमार जी ही बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहते । सीधे सादे आदरपुर वालों को यही बातें सच लगने लगीं पर कुछ अभी भी स्वतंत्र कुमार जी पर भरोसा करते थे । अब नालायक सिंह ने अपने मित्र नकलचीदास को बुलाया । नकलचीदास विदेशीपन की अंधे होकर नकल करता था । नकलचीदास ने अपने चेले चोर सिंह से मिलकर विदेश से अक्लमंदसेन की मनोविज्ञान की रफ कॉपी चुरा ली । इस कॉपी को यहाँ नकलचीदास ने अपना बताकर जोर-शोर से प्रचार किया और बच्चों का हमदर्द बनने के बहाने उनका पतन करने लगा । जिस देश में राजा के पुत्र भी जंगल में जाकर हर प्रकार का कष्ट सहते थे और गुरु के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त करते  थे । उस संस्कृति को धता बताकर बच्चों से फूल से भी कोमल व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र कुमार को मजबूर कर दिया । विद्यालय के बाहर लिखे आदर्श वाक्य भय बिन होत न प्रीति पर कण्डे थुपने लगे ।
नालायक सिंह ने बच्चों के अभिभावकों में स्वतंत्र कुमार के प्रति नफरत भर दी और कानून बनवा दिया कि बच्चे पढ़ें न पढ़ें पर उन्हें उत्तीर्ण किया जाए । अब आदरपुर गाँव में स्वतंत्र कुमार जी के अतिरिक्त सभी स्वतंत्र थे । परीक्षा का भय अब सदैव के लिए छूट चुका था । परीक्षा का भय न होने से बच्चों का जब मन करता था वे तभी गुरुकुल में आते थे । आदरपुर का नाम भी आफतपुर हो चला था । आदरपुर नाम के समय जहाँ लोग गुरूजी का आदर करते थे । वहीं आफतपुर बनने के बाद लोगों ने मास्टर जी का रहना मुश्किल कर दिया था । कोई भी कभी भी आकर स्वतंत्र कुमार जी को कुछ भी सुना जाता था और उनकी कोई नहीं सुनता था । इसलिए अब गुरुकुल का नाम भी गुरुधुल हो चुका था । जहाँ गुरु के आदर्शों की धुलाई होती थी ।
एक दिन नालायक सिंह आफतपुर में आया और उसने स्वतंत्र कुमार जी से कहा मास्साब पहचाना मैं नालायक सिंह हूँ । मैं केवल 15 दिन के लिए आपका विद्यार्थी रहा था । आपने मुझ पर एक दिन राजदंड चलाया था वो भी पढ़ाई जैसी बेकार की चीज के लिए । तभी मैंने सोच लिया था कि आपको पंगु बनाकर रहूँगा । अब कैसा लग रहा है पढ़ाना छोड़कर सारे काम करते हुए । अब आप किसी को लायक सिंह जैसा बड़ा अधिकारी नहीं बना पाएँगे । वैसे भी लायक सिंह अधिकारी बनने के बाद भी मेरे सामने गुलाम की तरह ही है । मैं जब चाहूँ , जहाँ चाहूँ उसकी ट्रांसफर और पोस्टिंग कर सकता हूँ । क्या लाभ हुआ लायक के इतना पढ़ने का ।....................वैसे मास्साब आज गुरुधुल में बच्चे इतने कम क्यों हैं ?
स्वतंत्र कुमार जी ने मुँह लटकाते हुए कहा क्या करूँ जबसे नई-नई योजनाएँ आई हैं तब से लोगों का मेरे ऊपर से विश्वास हटा है और बच्चे आना कम हो गए हैं । लोग समझते हैं कि मैं पढ़ाता  नहीं बल्कि ऐंवे ही गाँव में घूमता रहता हूँ जबकि मैं किसी न किसी योजना के लिए आँकड़े जुटा रहा होता हूँ । नालायक सिंह ने एक जोरदार ठहाका लगाया और कहा हा हा हा मास्साब देखना अब कोई नहीं पढ़ेगा फिर भी सबके पास डिग्रियाँ होंगी । घर-घर से नालायक सिंह निकलेंगे । फिलहाल तो मैं आपके लिए एक आदेश लाया हूँ तनिक पढ़ लीजिए ।
कहकर नालायक सिंह ने एक आदेश स्वतंत्र कुमार जी की ओर बढ़ाया । उनके एक हाथ में राजदंड था सो वो दूसरे हाथ से आदेश लेकर पढ़ने लगे । उस आदेश में लिखा था कि अब कोई भी अध्यापक राजदंड का प्रयोग नहीं कर सकेगा यदि अध्यापक ने किसी को दंड दिया तो उल्टे अध्यापक को ही दंड मिलेगा । आदेश के अंत तक आते आते स्वतंत्र कुमार जी पसीने पसीने हो गए । आदेश उनके हाथ से छूट गया । उनके हाथ ये सोचकर कँपकँपा गए थे कि जिस राजदंड की सहायता से वो दशकों से बच्चों का भविष्य बना रहे हैं , वो आज समाज की दृष्टि में शत्रु कैसे बन गया । पसीने से तर गुरूजी दु:खी होकर कुर्सी पर बैठ गए और अवाक से शून्य में कुछ देखने लगे । उनके कुछ संवेदनशील बच्चे अपनी कॉपी लेकर उसके गत्ते से उनकी हवा करने लगे । एक बच्ची पानी भी ले आई । नालायक सिंह ने तुरंत इस दृश्य का एक फोटो खींचा । अगले दिन इस फोटो के साथ समाचार पत्र में एक समाचार का शीर्षक था – 
आरामतलब हुए मास्साब , राजदंड की समाप्ति के आदेश को जमीन पर फेंका , बच्चों को पढ़ाने के बजाय उन्हें अपना नौकर समझकर पंखा झलवा रहे और पानी मँगवा रहे ।

लेखक 
प्रांजल सक्सेना


उपरोक्त लेख महेश चंद्र पुनेठा जी की इस कविता से प्रेरित 

क्या सचमुच ऐसा है?

ठोक-पीटकर इंसान गढ़ने वाले

हम ज्ञानी
हम अंतर्यामी
हम गंगलोढ़ों को मूर्ति में बदलने वाले
तुलसी से सीखा हमने-
भय बिन होत न प्रीत
कबीर से
गुरू-शिष्य परम्परा ।

हम जानते हैं अच्छी तरह
सीखने को अनुशासन बहुत जरूरी है
डंडा छूटा ,बच्चा बिगड़ा
बिना पीटे लोहे में धार कहाँ
हमने भी तो ऐसे ही सीखा
गुरू कृपा बिन ज्ञान कहाँ
स्साले समझते नहीं कुछ बच्चे
हम दुश्मन तो नहीं उनके

कुछ सिरफिरे हैं हमारे बीच भी
बधेका , नील ,वसीली , होल्ट ......
पता नहीं किस-किस का नाम लेते हैं
सस्ती लोकप्रियता पाने को
सिर चढ़ाते हैं बच्चों को
जानते नहीं कि बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहे हैं।
आखिर बच्चों को क्या पात सही-गलत का
कच्ची मिट्टी के लौंदे ठहरे बच्चे

बच्चे क्या जानते हैं
उन्हें तो हम सीखाएंगे ना!
हम नहीं देंगे छूट तनिक भी
हम खूब जानते हैं प्रतिफल उसका
सिद्धांत की बात कुछ और होती है
व्यवहार की कुछ और
घोड़े को कैसे कब्जे में रखा जाता है घुड़सवार ही जानता है।

समझते नहीं वे
अखरोट का हर दाना नहीं होता दॉती
बुद्धि तो ईश्वरीय देन है
फिर कुछ किस्मत का खेल है
किस्मत में नहीं विद्या
तब भला कहॉ से आएगी।
फिर सभी पढ़ने-लिखने में तेज हो गए
तब दुनिया कैसे चल पाएगी।

हमें कौन , क्या बताएगा
हम हैं ज्ञानी
हम हैं राष्ट्र निर्माता
हम हैं भाग्यविधाता
हम हैं ठोक-पीटकर इंसान गढ़ने वाले
ठोक-पीटकर इंसान बनाएंगे
कहने वाले कुछ भी कहते जाएं।

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डिस्क्लेमर : - यह कहानी एक काल्पनिक साहित्यिक उपज मात्र है। इसका किसी भी देश , राज्य अथवा व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस कहानी का  वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। यदि किसी से जुड़ाव प्रतीत होता हो तो भी इसे काल्पनिक  माना जाए।


लेखक
प्रांजल सक्सेना 
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