सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

अकन्या

ज दुर्गानवमी है। दुर्गानवमी पर बरखा बहुत खुश हो जाती है क्योंकि उसे इस दिन भरपूर खाना जो मिलता है और खाने में भी पूड़ी, छोले, हलुआ मिलता है, कहीं-कहीं तो खीर भी। अब तो गाँवों में शहरी प्रचलन आ गए हैं। इसलिए उसे टॉफी भी मिल जाती है वो संतरे वाली। उसकी सभी सहेलियाँ सुबह से ही दावत में जाने को तैयार बैठी हैं। मुनिया, जया, सीमा, प्रीति। कलुआ, रामप्रसाद और पंकजुआ भी थाली लिए तैयार बैठे हैं। सबने नए कपड़े पहन रखे हैं जो पिछले चतुर्थी के मेले से लाए थे वही वाले। लेकिन बरखा को कोई तैयार नहीं कर रहा। बरखा रोज के घर के ही कपड़े पहने हुए है। हर लड़की को किसी न किसी के घर कन्या खाने जाना ही होता है। हाँ कोई लड़की सयानी हो जाए तो बात अलग है। जैसे पड़ोस वाली रेखा दीदी पिछले नवरात्र से कहीं खाने नहीं जातीं। सयाना होना क्या होता है ये बरखा को नहीं पता लेकिन इतना पता है कि वो अभी सयानी नहीं हुई है। उसकी अम्मा बताती हैं कि अभी वो केवल 3 साल की है। फिर क्यों उसे कोई तैयार नहीं कर रहा? पड़ोस के घर में भी लोग कन्याओं को दावत दे गए। 

लेकिन बरखा के घर पर कोई दस्तक न हुई। बरखा के घर पर एक चीखता हुआ सन्नाटा फैला हुआ है। कोई किसी से नजर नहीं मिला रहा। बरखा एक कोने में खाट पर लेटी है। वो बहुत दर्द में भी है और दावत में जाना चाहती है। लेकिन जाए तो तब न जब कोई बुलाए। उससे 2 साल बड़ी उसकी बहन कुसुम गाल फुलाकर बैठी है। अभी-अभी बरखा को कोसकर गयी है कि तुम्हारी वजह से कोई मुझे भी पूड़ी खाने नहीं बुला रहा क्योंकि कुछ दिन पहले बदरुआ के खेत में तुम लेटी हुई थीं और तुम्हारे कच्छे से खून निकल रहा था। 

बरखा कोमल हृदय की है उसे इस बात पर रोना आ गया है। सहेलियों के साथ खेलने के बाद घर में कुसुम ही तो थी जिसके साथ वो खेलती थी। पर कुसुम भी आज उससे नाराज है। बरखा वादा करने को तैयार है कि वो अब कुसुम को नहीं सताएगी। न तो उसके बाल खींचेगी न ही नोंचेगी। लेकिन वादा सुनने को कुसुम पास तो आए तब न। बरखा सोचती है कि आखिर क्यों हुआ ऐसा? ऐसी भी क्या गलती कर दी उसने? वो तो बस बिरजू भैया के साथ चॉकलेट के लालच में गयी थी। वो चॉकलेट जो गाँव के उन्हीं घरों में आती है जिनकी छत छप्पर या टीन की नहीं बल्कि पक्की होती है। बिरजू भैया ने यही तो लालच दिया था बरखा को कि उसे चॉकलेट खिलाएँगे और इसी बहाने बदरुआ के खेत तक ले गए थे। वहाँ उन्होंने बहुत गंदा-गंदा काम किया। बरखा चिल्लाना चाहती थी लेकिन उसका मुँह बाँध दिया था। वो छटपटा रही थी लेकिन बिरजू की पकड़ से छूट नहीं पा रही थी। कुछ देर में वो बेहोश हो गयी थी। फिर जब आँख खुली तब वो अस्पताल में थी। सब बताते हैं कि उसके कच्छे में बहुत सारा खून निकला था। कई दिन अस्पताल में रहने के बाद परसों ही वो घर पर आयी है। 

उसकी सारी सहेली अब उससे दूर भागती हैं। कोई उसके साथ नहीं खेलना चाहता। उसके बापू का काम छूट गया है। गाँव में कोई भी उन्हें अपने यहाँ मजूर नहीं रखना चाहता। वो जिस गली से गुजरते हैं लोग मुँह फेर लेते हैं। उसकी माँ अंधेरे में ही दिन भर के काम के लिए पानी भर लाती है क्योंकि दिन में घर से बाहर निकलने पर सब उन्हें ताने देते हैं। अजनबियों से बात मत करो, किसी की दी हुई चीज मत लो, बिना माँ-बाप को बताए किसी के साथ मत जाओ। ये सारी बातें उसके अम्मा-बापू उसे सिखाने वाले थे। अभी तक इसलिए नहीं सिखायी थीं क्योंकि उन्हें लगा था कि अभी बरखा इन बातों के लिए छोटी है। लेकिन उन्हें क्या पता था कि देह पिपासुओं के लिए उम्र मायने नहीं रखती। सस्ते हो चुके मोबाइल और उससे भी सस्ते हो चुके इंटरनेट में अश्लीलता पर अंकुश जैसा कुछ नहीं है। गली-चौराहों पर आवारा लड़कों का झुण्ड एक 4-6 इंच के मोबाइल में स्त्री के नंगे बदन की पड़ताल कर सकता है और फिर उत्तेजना को निकालने का साधन ढूँढने लगता है। कुछ इसे अपने अंदर ही दबा लेते हैं लेकिन विकृत हो चुके देह पिपासु को तो इस उत्तेजना की शांति के लिए स्त्री की देह चाहिए ही चाहिए। शायद यही वजह थी कि बरखा उसी बिरजू का शिकार बनी थी जिसे पड़ोसी होने के नाते वो भैया कहती थी।  

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बरखा के पास आज सवालों की झड़ी है वो जानना चाहती है कि भैया ने उसे इतना दर्द क्यों पहुँचाया? क्यों आज कोई सहेली उसके साथ नहीं खेलना चाहती? उसकी माँ हर समय रोती क्यों हैं? उसके बापू को कोई काम क्यों नहीं दे रहा? बापू को काम न मिलने से वैसे ही खाना नहीं मिल पा रहा ऊपर से कोई आज उसे दावत में भी नहीं बुला रहा। क्या कच्छे से खून निकलना इतनी गंदी बात होती है? खून तो केवल बरखा के निकला है फिर सारा परिवार क्यों दुखी है? क्यों सबका सामाजिक बहिष्कार हो रहा है? बिरजू का तो बहिष्कार नहीं हुआ। उसके माई-बापू कहते हैं कि अरे लड़का है गलती हो गयी। उसके बापू को काम भी मिल रहा है। बिरजू के घर में कोई भूखा नहीं है। बरखा अपना कच्छा खुद धोना चाहती है, वो लता के घर से साबुन से ले आएगी और बड़े होकर जब नौकरी करेगी तब कमाकर साबुन के पैसे वापिस कर देगी। लेकिन उसे घर से बाहर कोई जाने नहीं दे रहा। उसकी दादी कहती हैं कि उस पर ऐसा दाग लग गया है कि अब कभी नहीं छुटेगा। दादी ऐसा क्यों कहती हैं? टिंकुआ के घर टीवी देखते समय तो बरखा ने सुना था कि साबुन से सारे दाग छूट जाते हैं। 

बरखा के सवालों का जवाब कोई नहीं दे पा रहा है। सुना है कि हम मानव सभ्य हैं, जानवरों से बहुत ऊपर हैं। फिर ये वहशी कहाँ से आ जाते हैं और कहाँ से आ जाते हैं उस वहशी के बजाय पीड़ित को ही कोसने वाले। इन शब्द बलात्कारियों के लिए तो न कोई कानून बन पाया है न ही सजा। बरखा के प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलेगा, कभी नहीं मिलेगा। समाज आज तक राम की अग्नि परीक्षा न होने का उत्तर तो दे न पाया फिर बरखा के प्रश्नों का उत्तर क्या देगा? बरखा के हिस्से बस एक सच आया है एक भौंडा सच। एक ऐसा सच जिस पर थूकने का मन भी न करे। एक ऐसा सच जो कुरूप है, जो त्याज्य है, जो विद्रूपता से भरा हुआ है और ये सच यही है कि भले ही बरखा अभी सयानी नहीं हुई है लेकिन उसे कोई कन्या नहीं कहेगा। कोई शब्द नहीं बना ऐसी कन्या के लिए जिसे इसलिए नहीं जिमाया जाए क्योंकि वो किसी और के गुनाह की शिकार है। झूठी मान्यताओं को चाटकर जीने वाला समाज आज तक ऐसे पीड़ितों के लिए एक शब्द भी ईजाद न कर पाया। तब ऐसे में उसे क्या कहा जाए-

अकन्या?😢

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रविवार, 6 अक्तूबर 2019

महानपुर के नेता

महानपुर के नेता से चर्चा में आए प्रांजल
07 Oct 2019
पूर्व माध्यमिक स्कूल रहटुइया के सहायक अध्यापक प्रांजल सक्सेना की किताब महानपुर के नेता इन दिनों सुर्खियों में है। हास्य-व्यंग्य में पगी इस किताब को हिंद युग्म ने प्रकाशित किया है।

पेशे से शिक्षक प्रांजल को शुरू से ही लिखने का बड़ा शौक रहा। लोगों के हंसते-खिलखिलाते चेहरे देखना उन्हें काफी पसंद है और उससे भी ज्यादा पसंद है उस खिलखिलाहट का कारण बनना। प्रांजल को खुद ही नहीं याद है कि उनके चुटकुले कब कहानियों में बदल गए। देखते ही देखते इसने एक उपान्यास का रूप ले लिया। कच्ची पोई ब्लॉग के जरिए प्रांजल पहले ही लोगों का मनोरंजन कर रहे थे। दो वर्ष की मेहनत के बाद उन्होंने महानपुर के नेता किताब लिखी। यह किताब भारतीय राजनीति में होने वाली हर तिकड़मबाजी को बयां करती है। किताब में वर्तमान राजनीति पर गहरी चोट भी की गई है। प्रांजल की किताब अमेजन पर भी उपलब्ध है। बरेली के शिक्षकों के साथ ही बाहरी पाठक भी इसे खूब पढ़ रहे हैं।

प्रांजल सक्सेना  द्वारा रचित पुस्तक महानपुर के नेता पढ़ने के लिए क्लिक करें-

शनिवार, 26 जनवरी 2019

सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है

सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है,
सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है।

एक बच्चा पिज्जा-बर्गर खाता है,
एक बच्चे को राशन भी न मिल पाता है।
एक बच्चा कोल्ड ड्रिंक से गला तर करता है,
एक बच्चा आँसू पी-पीकर मरता है।
एक बच्चा थाली में खाना छोड़ जाता है,
एक बच्चा भूख से दम तोड़ जाता है।

ये अंतर वीभत्स तस्वीर दिखाता है,
सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है।

एक बच्चा ढेरों सुविधाएँ पाता है,
एक बच्चा ढेरों दुविधाएँ पाता है।
एक बच्चा महँगी कारों में घूमता है,
एक बच्चा कूड़े में रोजी ढूँढता है।
एक बच्चा महलों का राजकुमार है,
एक बच्चा पाता सिर्फ दुत्कार है।

'समानता का अधिकार' सिसकियाँ बहाता है,
सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है।

एक बच्चा पाया है परिवार बड़ा ऊँचा,
एक बच्चा पाया है मोहल्ले का गंदा कूँचा।
एक बच्चा निर्बाध शिक्षा पाता है,
एक बच्चा पेट भरने स्कूल जाता है।
एक बच्चा हजारों का जेबखर्च पाता है,
एक बच्चा पेंसिल भी नहीं खरीद पाता है।

गरीब को चोर का तमगा मिल जाता है,
सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है।

एक बच्चा अपने खिलौनों पर ऐंठता है,
एक बच्चा घूरे के ढेर पर बैठता है।
एक बच्चा हर रात महँगे सपने सजाता है,
एक बच्चा चैन की नींद भी न सो पाता है।
एक बच्चा जिद करने से पहले चीज पाता है,
एक बच्चा जिद का मतलब भी न जान पाता है।

भारत, इंडिया देखकर ललचाता है,
सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है।

एक बच्चा विदेश से जूते मँगाता है,
एक बच्चा चप्पल को तरस जाता है।
एक बच्चा कुत्ते से दिल बहलाता है,
एक बच्चा गोबर के उपले बनाता है।
एक बच्चा वेटर को महँगी टिप दे आता है,
एक बच्चा मजदूरी करके पेट भर पाता है।

समाजवाद जुमला बनकर रह जाता है,
सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है।

एक बच्चा नोटों के भरोसे आगे बढ़ता है,
एक बच्चा योग्यता से सीढ़ियाँ चढ़ता है।
एक बच्चा पैसे के नशे में रहना चाहता है,
एक बच्चा सुंदर भारत बनाना चाहता है।
एक बच्चा मनोरंजन में गरीब को नोंचता है,
एक बच्चा दूसरों के बारे में भी सोचता है।

सत्य को हर मोड़ पर संघर्ष करना पड़ जाता है,
सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है।
सुना है मेरा देश आजाद कहलाता है।

प्रांजल सक्सेना

आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई।

उपरोक्त कविता में जो मुद्दे हैं वो मेरे द्वारा रचित उपन्यास 'गाँव वाला अंग्रेजी स्कूल' में विस्तार से उठाये गये हैं। इस गणतंत्र दिवस समय निकालकर मनोरंजन और शिक्षा से भरी इस पुस्तक को पढ़ें। मुझे पूरी आशा है कि आप निराश नहीं होंगे।

जय हिन्द
जय भारत

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