शनिवार, 4 जुलाई 2015

गिरे जो विशाल वट वृक्ष



गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

दो दिन संक्षिप्त रुदालियाँ ,
फिर विस्तृत खुशहालियाँ ।

पहले दिन टूटें चूड़ियाँ ,
तेरहवें दिन बनें पूड़ियाँ ।

मृत्यु पर सजे बँटवारा मंच ,
रचित हों नित नवीन प्रपंच ।

रिश्तों के दरकें विश्वास ,
चारों ओर धन की आस ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

नौकरी , मकान और व्यापार ,
होएं कई - कई हिस्सेदार ।

दिखें दुनिया के अजीब रंग ,
जर - जमीन को होए जंग ।

भूला प्रेम भाव को चित्त ,
चर्चा में है केवल वित्त ।

सभ्यता प्रदर्शन में थे मगन ,
हुआ उनका चरित्र नग्न ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

भूले वृक्ष की निर्मल छाया ,
चर्चा केंद्र में धन की माया ।

जड़ों में जिसने दिया न जल ,
तोड़ना चाहें अमूल्य फल ।

लालच बनाए व्यवहार वक्र ,
रचे मनुष्य अनेक कुचक्र ।

 कर रहे वो गणनाएँ सरल ,
किसको कितना मिले तरल ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

उसने बसाई एक नन्हीं सृष्टि ,
हो रही जिसमें अलगाव वृष्टि ।

एक परिवार और एक रक्त ,
हुआ खण्ड - खण्ड विभक्त ।

ओढ़ लालच , भावनाएँ सुप्त ,
योजनाएँ गुप्त , प्रेम विलुप्त ।

इसके तर्क , उसके कुतर्क ,
घर बना , अब एक नर्क ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

मृतक की वस्तुएँ फैलाएँ दोष ,
इसके दान का करो उद्घोष ।

पुरानी खटिया , पुराने कपड़े ,
इनके लिए , कौन झगड़े ।

पुरानी चद्दर का भी किया दान ,
रह गए जमीन और मकान ।

पुरानी वस्तुएँ बड़ी दोष युक्त ,
आभूषण , संपत्ति दोष मुक्त ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

बँटवारे में हो , ये भी चर्चा ,
किसने कितना किया खर्चा ।

न एक तिहाई न आधा - आधा ,
मैं बड़ा , मेरा हिस्सा ज्यादा ।

तुम लड़की और तुम दामाद ,
तुम क्यों कर रहे विवाद ।

ब्याह हुआ अब हुईं पराई ,
क्यों संपत्ति को नजर उठाई ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

मुझको चाहिए मेरा अधिकार ,
तू परदेसी तुझ पे धिक्कार ।

मुझे मिले सब कारोबार ,
मैं था एकलौता सेवादार ।

मैंने ही उसका बुढ़ापा ढोया ,
मैं ही सबसे ज्यादा रोया ।

अब न प्रेम , न है संयम ,
न तू प्रथम , न मैं दोयम ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

अनेक - अनेक हैं कामनाएँ ,
ताक पर रखी भावनाएँ ।

अनेक - अनेक निकले तंज ,
रिश्तों में अब केवल रंज ।

अनेक - अनेक हैं दावेदार ,
जिव्हा देखो बड़ी धारदार ।

अनेक - अनेक जागीं दुष्टताएँ ,
रसातल में पहुँची शिष्टताएँ ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

वट वृक्ष जब हो जाए पस्त ,
बँटवारा बनाए सबको व्यस्त ।

वट वृक्ष का भूल जाएँ किस्सा,
मिल जाए जब अपना हिस्सा ।

न कोई दवा न कोई मरहम ,
बस सम्पत्ति ही भुलवाए गम ।

ऐ सम्पत्ति शत् - शत् नमन ,
तेरा प्रवेश तो दुःख गमन ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य ।


रचनाकार
प्रांजल सक्सेना 
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