रविवार, 31 मई 2015

इश्क उवाच


दुश्मन है ये जमाना , मुझको बड़ा ही उकसाता है ,
मेरे मासूम सा दिल भी , इनके कहे में बहक जाता है ।
ये खाकसार बड़ी मुश्किल से तो इक शेर लिखा पाता है ,
जो बीवी को पचता नहीं महबूबा के दिल में उतर जाता है ।
शाम को थका-हारा आदमी दरवाजा तो जरूर खटखटाएगा ,
बीवी दरवाजा न खोलेगी तो पड़ोसन के घर घुस जाएगा ।
शायर बन जाना मेरे आशिक होने की निशानी है ,
पर मोहब्बत करूँ भी कैसे बेगम बड़ी सयानी है ।
जमाने से छुप-छुपकर हम उनसे मिला करते हैं ,
बेगम का कम डर है उसके भाईयों से डरते हैं ।
बेगम तक ये गजल न पहुँचे ये आपकी है जिम्मेदारी ,
अब आपके ही हाथ में है मेरे सिर पर जूतम-पैजारी ।


रचनाकार
प्रांजल सक्सेना 
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